The Second Chance Book मृत्यु की पराजय
भूमिका जब पापी अजामिल मृत्युशय्या पर लेटा था तो उसने तीन भयानक मानव जैसे प्राणियों को अपने मरणासन्न शरीर से उसके प्राण निकालकर उसे दण्ड देने के लिए यमराज के धाम ले जाने के लिए अपनी ओर आते देखा। आश्चर्य तो यह था कि अजामिल इस भयावह विपदा से बच गया। किन्तु कैसे ? इसे आप इस पुस्तक मृत्यु की पराजय- एक मरणासन्न व्यक्ति की कहानी के पृष्ठों में पाएंगे। इसके अतिरिक्त आप आत्मा तथा वास्तविकता (सत्य) के विषय में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें जानेंगे जिससे आप मृत्यु से अपनी अनिवार्य मुठभेड़ का सामना करने तथा मरने के लिए अच्छी तरह तैयार रहें। आज भी लोग मृत्यु के बहुत निकट पहुँचकर अजामिल जैसी मुठभेड़ की सूचना देते हैं, जिससे इस बात को बल मिलता है कि मृत्यु के बाद भी जीवन होता है। १९८२ में जार्ज गैलप जूनियर ने ऐडवेंचर्स इन इम्पोर्टेलिटी (अमरता विषयक साहसिक कथाएँ) प्रकाशित की, जिसमें मृत्यु के तथा मरते समय और शरीर त्यागने के बाद के अनुभवों सम्बन्धी अमेरिकी विश्वासों के सर्वेक्षण के परिणामों का वर्णन है। सर्वेक्षण में सम्मिलित किये गए व्यक्तियों में से ६७ प्रतिशत लोगों ने बतलाया कि वे मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास करते हैं; १५ प्रतिशत लोगों ने यह कहा कि उन्हें स्वयं मृत्यु के निकट के कुछ अनुभव हुए हैं। जिन लोगों ने मृत्यु के निकट के अनुभवों की सूचना दी उनसे उन अनुभवों का वर्णन करने को कहा गया। इनमें से ९ प्रतिशत लोगों ने शरीर से बाह्य अनुभूति की सूचना दी, जबकि ८ प्रतिशत ने बतलाया कि मृत्यु के निकट उन्हें एक या अधिक विशिष्ट प्राणी दिखे। गैलप का यह सर्वेक्षण पहेली जैसा है, किन्तु यह मूल प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि क्या ऐसे मरणासन्न अनुभव का-विशेषकर शरीर त्यागने के बाद का -कोई वैज्ञानिक प्रमाण है मृत्यु की पराजय मरणासन्न लोगों के अध्ययन से, जो प्रायः बेहोशी में होते हैं, लगता है कि ऐसा प्रमाण है। इन लोगों ने अपने पार्थिव शरीर की बाहरी दृष्टिकोण से सम्बन्धित घटनाओं की ठीक-ठीक रिपोर्ट दी है। हृदय-आघात के रोगियों दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों तथा युद्धभूमि में घायल सिपाहियों ने ऐसे अनुभव की सूचना दी है। एमोरी विश्वविद्यालय के मेडिकल स्कूल के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. माइकल बी. सैबोभ ने अपनी पुस्तक रिकलेक्शन्स ऑफ डेथ ए मेडिकल इनवेस्टिगेशन (१९८२) में यह स्पष्ट लिखा है कि मन दया मस्तिष्क की पृथक्-पृथक् सत्ता है और मृत्यु के निकट अल्प काल के लिए मन तथा मस्तिष्क पृथक् हो जाते हैं। इस प्रश्न के विभिन्न पक्ष की सम्यक खोजबीन मृत्यु की पराजय नामक पुस्तक में श्रील भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने की हैं, जो अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापक आचार्य हैं। हजारों वर्ष पूर्व भारत में अजामिल की कथा तथा मृत्यु के निकट उसके अनुभव को महान आचार्य श्रील शुकदेव गोस्वामी ने अपने शिष्य राजा परीक्षित से बतलाया। उनकी वातां श्रीमद्भागवतम् के षष्ठम् स्कन्ध में अंकित है। १९७५-७६ में श्रीमद्भागवतम् का अंग्रेजी अनुवाद करते समय श्रील प्रभुपाद ने अजामिल की कथा का अनुवाद किया। उन्होंने मूलपाठ के साथ हर श्लोक की उद्दीपक टीका भी कर दी। किन्तु श्रील प्रभुपाद ने अजामिल की कथा पहली बार नहीं बतलाई। १९७०-७१ की शीत ऋतु में श्रील प्रभुपाद अपने पाश्चात्य शिष्यों के साथ भारत में भ्रमण कर रहे थे। इन शिष्यों ने कई बार उन्हें अजामिल की कथा कहते सुना था और उन्हों के अनुरोध पर उन्होंने अजामिल कथा पर शृंखलावद्ध व्याख्यान दिये। इस तरह मृत्यु की पराजय में श्रीमद्भागवतम् के षष्ठम् स्कन्ध की टीका तथा १९७०-७१ में भारत भ्रमण के समय दिये गए व्याख्यानों के कुछ उद्धरणों को संकलित किया गया है। अजामिल की कथा नाटकीय, शक्तिशाली तथा मन बहलाने वाली है। अजामिल के द्वारा मृत्युदूतों का सामना करने तथा मोक्ष प्राप्त करने के समय जो आध्यात्मिक तथा आत्मविषयक वाद-विवाद चलता है, वह जीवन के गहनतम प्रश्नों के विषय में रुचि उत्पन्न करने वाला है। मनुष्यों तथा पशुओं में अन्तर मनुष्यों तथा पशुओं में अन्तर श्रील शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित से कहा : कान्यकुब्ज ( वर्तमान भारत का कन्नौज) नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जिसने एक वेश्या दासी से अपना विवाह कर लिया और निम्न जाति की इस स्त्री की संगति के फलस्वरूप उसने अपने सारे ब्राह्मण गुण गँवा दिये। अजामिल दूसरे लोगों को बन्दी बनाकर, उन्हें जुए में ठगकर या उन्हें सीधे लूटकर कष्ट देता था। इस तरह से वह अपनी पत्नी तथा अपने बच्चों का पालन-पोषण करता था। ( श्रीमद्भागवतम् ६.१.२१-२२) कर्मफलों के नियम यद्यपि अजामिल का जन्म ब्राह्मण पिता से हुआ था और वह विधि-विधानों का कड़ाई से पालन करता था-न मांस खाता था, न अवैध यौन में रत होता था, न नशा करता था, न ही जुआ खेलता था- किन्तु वह एक वेश्या से प्रेम करने लगा, अतएव उसके सारे सद्गुण जाते रहे। जब कोई पुरुष विधि विधानों को त्याग देता है, तो वह नाना प्रकार के पापकर्मों में लग जाता है। विधि-विधान हमें मानव जीवन के आदर्श स्तर पर बनाए रखते हैं। किन्तु यदि हम उन्हें त्याग देते हैं, तो हम मोहमय जीवन में-माया में जा गिरते हैं। यदि हम आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करना चाहते हैं, तो हमें विधि विधानों का पालन करना चाहिए और अपने विगत जीवनों तथा इस वर्तमान जीवन की त्रुटियों को सुधारना चाहिए। जो लोग सभी प्रकार के पापकर्मों मुक्त हो चुके हैं और अब पुण्यकर्मों में लगे हुए हैं, वे ही ईश्वर को पूरी से. तरह से समझ सकते हैं। जो पापकर्म करते हैं और शारीरिक सुविधाओं एवं लौकिक मैत्री, समाज तथा पारिवारिक स्नेह के प्रति अत्यधिक अनुरक्त रहते हैं, उन्हें आध्यात्मिक अनुभूति नहीं हो पाती। है। मनुष्य को प्रामाणिक गुरु के समीप जाकर विनयपूर्वक जिज्ञासा करनी चाहिए। परम सत्य (परब्रह्म) की व्याख्या शास्त्रों में पाई जाती है और इन शास्त्रों की व्याख्या गुरु या सन्तपुरुष द्वारा की जाती है। प्रामाणिक एवं स्वरूपसिद्ध गुरु जो भी कहें उसे स्वीकार करना चाहिए। यहाँ शास्त्रों की व्याख्या करने की गुंजाइश नहीं है। श्रीमद्भागवतम् में कहा गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उसी तरह उठा लिया जिस तरह कोई बालक कुकुरमुत्ते को उठा लेता है। उन्होंने इतनी आसानी से इसे सम्पन्न किया, किन्तु लोग इसपर विश्वास नहीं करते। जो लोग श्रीमद्भागवतम् में विश्वास नहीं करते वे परोक्ष अर्थ ग्रहण करते हैं। अर्थ स्पष्ट रहता है